

करीब सवा साल पहले की बात है, नवंबर 2023 की, जब सोशल मीडिया पर एक वीडियो तेजी से वायरल हुआ। यह वीडिया लिट्टे लीडर वेलुपिल्लई प्रभाकरण की बेटी द्वारका का था। कुछ ही वक्त में यह वीडियो पूरी दुनिया में फैल गया। द्वारका के बारे में आखिरी जानकारी 2009 में आई थी, जिसमें उसके एक एयरस्ट्राइक में मारे जाने की खबर थी। हालांकि उसकी बॉडी कभी नहीं मिली।
वीडियो में द्वारका वैसी ही दिख रही थी, जैसा उसे 14 साल बाद दिखना चाहिए था। क्या वह उस एयरस्ट्राइक में बच गई थी? जल्द ही जवाब मिला कि नहीं, यह वीडियो फर्जी था। इसे एआई की मदद से बनाया गया था।
पिछले साल भारत में लोकसभा चुनाव के अलावा भी कई बड़े इलेक्शन हुए। इस दौरान फर्जी और भ्रामक सूचनाओं की बाढ़-सी आ गई। यह पता लगाना मुश्किल था कि सोशल मीडिया पर जो वायरल हो रहा है, उसमें कितना सही है और कितना झूठ। देखा जाए तो यही देन है सोशल मीडिया की!
इसने केवल वर्चुअल दुनिया ही नहीं रची, बल्कि उसमें झूठ भी भर दिया है। समस्या है कि तमाम लोग उसे ही सच मानने लगे हैं। अभी तक मेटा (Meta) जैसी कंपनियां अपनी तरफ से फैक्ट चेक किया करती थीं, लेकिन धीरे-धीरे वे भी इससे हाथ खींच रही हैं।
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फेसबुक, इंस्टाग्राम, थ्रेड और वट्सऐप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म Meta के ही हैं। कंपनी अभी तक FactCheck.org जैसे दूसरे माध्यमों से थर्ड पार्टी फैक्ट चेक कराती थी, लेकिन अब उसने इससे दूरी बना ली है। फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग (Mark Zuckerberg) का कहना है कि उन लोगों ने यह कदम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए उठाया है। जिसे जो कहना है, उसे उसकी आजादी होनी चाहिए।
कमाल की बात है कि नहीं! जुकरबर्ग ने कितनी आसानी से फ्री स्पीच के नाम पर झूठ परोसने को आजादी बता दिया। देखा जाए तो सोशल मीडिया कंपनियां इसी तरह से कारोबार कर रही हैं। अमेरिका में पिछले साल एक सर्वे हुआ था, जिसमें 90 प्रतिशत से ज्यादा जर्नलिस्ट ने फर्जी खबरों को लेकर चिंता जाहिर की थी। वहीं, 38 फीसदी से ज्यादा न्यूज कंज्यूमर्स ने माना था कि उन्होंने गलती से फर्जी सूचना फॉरवर्ड कर दी।
इसका मतलब है कि अगर मंशा गलत न हो, तो भी किसी सोशल मीडिया यूजर के लिए सही और गलत का पता लगाना बहुत मुश्किल है। लोगों के पास अपने दोस्तों-परिवार वालों-रिश्तेदारों से मेसेज आता है और वे उसे आंख मूंदकर फॉरवर्ड कर देते हैं। क्या किसी के पास जरिया है उसकी सच्चाई के बारे में पता लगाने का? नहीं।
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सोशल मीडिया ने आम लोगों को ताकत तो दी है, लेकिन उन्हें सबसे बड़े खतरे में भी डाल दिया है। वे दिनों दिन फर्जी सूचनाओं के जाल में फंसते जा रहे हैं। झूठ फैलाकर उनकी भावनाएं भड़काई जाती हैं, उकसाया जाता है, नफरत फैलाई जाती है। और जिन नेटवर्क के जरिये यह सब हो रहा है, जिन कंपनियों के ये नेटवर्क हैं, वे अपनी जिम्मेदारियों से भाग रही हैं।
आज ट्विटर और फेसबुक जैसी बड़ी टेक कंपनियों के पास सूचना की बेशुमार ताकत है, इनके करोड़ों यूजर्स हैं, लेकिन ये किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होना चाहतीं। कम्युनिटी नोट्स मॉडल जैसे तरीके बताते हैं कि ये कंपनियां सब कुछ हम पर लाद देना चाहती हैं। ट्विटर (Twitter) ने इस मॉडल को लोकप्रिय बनाया। इसमें कम्युनिटी तय करती है कि कौन-सी पोस्ट गुमराह करने वाली लग रही और किसमें और ज्यादा रेफरेंस की जरूरत है।
ऐसे में अब पारंपरिक मीडिया की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। यह जिम्मेदारी हमारी और आपकी भी है कि किसी भी Forwarded Message को सच मानने से बचें, भले वह किसी ने भी भेजा हो।
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