

चीन के अरबपति कारोबारी और अलीबाबा के संस्थापक जैक मा (Jack Ma) तब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की आंखों के तारे थे। वह जो कुछ भी कहते थे, उसे सुना जाता था। तो एक दिन उन्होंने कहा कि लोगों को हर दिन 12 घंटे काम करना चाहिए और हफ्ते में केवल एक छुट्टी होनी चाहिए।
चीन में ‘996’ सिस्टम चलन में है यानी सुबह 9 से रात के 9 तक नौकरी, हफ्ते में 6 दिन। जैक मा के बयान की पूरी दुनिया में आलोचना हुई थी, लेकिन उन्होंने अपनी सोच को राष्ट्रवाद की पैकिंग में भरकर सरकाया था। उनका कहना था कि चीन को महान बनाए रखने के लिए सभी को इतना काम करना ही होगा और जो नहीं कर सकता, वह मेरी कंपनी में नौकरी करने के बारे में न सोचे।
यही वाला ‘राष्ट्रवाद’ लगता है कि भारतीय कॉरपोरेट जगत में भी घुस गया है। कुछ बड़े कारोबारी घरानों के मालिक चाहते हैं कि उनके कर्मचारी 10-12 घंटों तक काम करें। हालिया बयान लार्सन एंड टुब्रो (L&T) के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यन (S. N. Subrahmanyan) की तरफ से आया है। उन्होंने अपने कर्मचारियों को हफ्ते में 90 घंटे काम करने की सलाह दी है।
सुब्रह्मण्यन साहब का कहना था कि कब तक घर में रहकर पत्नी को निहारोगे और पत्नी कब तक पति को देखेगी। वह तो रविवार को भी काम कराने के हिमायती हैं। करीब सवा साल पहले, 2023 के आखिर में इंफोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति (N. R. Narayana Murthy) ने कहा था कि लोगों को 70 घंटे काम करना चाहिए।
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बाद में एक इंटरव्यू में नारायणमूर्ति ने अपने बयान को सही ठहराने की कोशिश करते हुए कहा था कि समाज के गरीब तबकों के प्रति हमारी भी कुछ जिम्मेदारी है और उनकी बेहतरी के लिए ज्यादा काम करना चाहिए।
इन उद्योगपतियों की बातों से ऐसा लगता है कि जीवन का मतलब केवल काम है और वह भी ऐसा काम जो केवल इनके लिए किया जाए। अपनी सहूलियत के लिए इन्होंने राष्ट्र निर्माण जैसे शब्द का सहारा ले लिया कि अगर हमें चीन को हराना है, तो इतना तो करना ही होगा!
क्या सही में? क्या केवल ज्यादा काम करके ही चीन को हरा सकते हैं और इस मामले में चीन ही हमारा रोल मॉडल क्यों होना चाहिए? हम अमेरिका या जापान की बात क्यों नहीं कर सकते?
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पैसे कमाने के लिए काम जरूरी है, लेकिन ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि काम में ही जीवन डूब जाए। अडाणी ग्रुप के प्रमुख गौतम अडाणी (Gautam Adani) ने इस बहस के बीच बिल्कुल सही कहा कि आपके वर्क-लाइफ बैलेंस को मेरे ऊपर नहीं लादना चाहिए और न ही मेरे वर्क-लाइफ बैलेंस को आपके ऊपर लादना सही होगा।
वर्क-लाइफ बैलेंस हर शख्स के लिए अलग हो सकता है। आज जो बॉस बने बैठे हैं, हो सकता है कि उनके लिए ऑफिस में 12-15 घंटे रहना आसान हो, लेकिन एक सामान्य कर्मचारी से ऐसी उम्मीद बेमानी है। उस पर घर-परिवार की ढेरों जिम्मेदारियां होती हैं। उसे रिश्ते-नातों को समय देना पड़ता है, समाजिकता निभानी पड़ती है। कोई भी इंसान एक लैपटॉप के साथ अंडे के खोल में बैठा नहीं रह सकता, जहां सिर्फ उसके बॉस का नेटवर्क मिले।
वैसे भी मतलब काम के घंटों से नहीं, काम की क्वॉलिटी से होना चाहिए। महिंद्रा एंड महिंद्रा कंपनी के चेयरमैन आनंद महिंद्रा (Anand Mahindra) ने बिल्कुल सही कहा है कि काम में क्वॉलिटी जरूरी है, क्वांटिटी नहीं। यह हफ्ते में 70 या 90 घंटे काम करने की बात नहीं है। यह आउटपुट की बात है।
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एक बॉस और एक कर्मचारी के लिए काम का मतलब बिल्कुल अलग होता है। दोनों का स्ट्रेस अलग होता है, मेहनत अलग लगती है। यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि अगर बॉस एसी केबिन में बैठा हुआ है, तो उसका कर्मचारी भी बाहर डेस्क पर या सड़कों पर फील्ड वर्क में व्यस्त रहे।
देश में मेंटल हेल्थ (Mental health problems) के मरीज बढ़ते जा रहे हैं। एक बड़ी आबादी अपने काम से खुश नहीं है। उसे उसकी स्किल के मुताबिक जॉब नहीं मिल रही। कॉरपोरेट कल्चर का प्रेशर अपनी जगह है। महानगरों में जाकर देखिए कि मामूली-सी सैलरी में लोग किस तरह गुजारा कर रहे हैं। आय का अंतर ज्यादा होता जा रहा है।
हमारे बिजनेस लीडर्स को अगर वाकई देश की चिंता है तो पहले काम का माहौल सुधारें, नौकरियों के मौके बनाएं और अपने कर्मचारियों को तनाव से निकालें। उनकी ऐसी बातें उल्टा अवसाद देने वाली हैं। और यकीन कीजिए, इसका राष्ट्रवाद से कोई मतलब नहीं।
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