

एक दोस्त का फोन आया कुछ दिनों पहले। यूपी से ताल्लुक रखता है और बंगलुरू में अच्छी नौकरी कर रहा है। लेकिन इधर बीच उसका मन बार-बार बेचैन हो उठता है। उसे दिल्ली की याद आ रही है!
दिल्ली से उसका इतना ही नाता है कि यह देश की राजधानी है। इसके अलावा न उसका कोई रिश्तेदार राजधानी में न रहता है और न परिवार का कोई सदस्य। कुछ यार-दोस्त हैं, लेकिन उनसे तो देर-सबेर मुलाकात हो ही जाती है। फिर उसे क्यों दिल्ली की तड़प उठ रही? वहां की मुफ्त योजनाओं की वजह से। उसने फोन पर कहा, ‘बिजली, पानी, दवा – यहां सब खरीदना पड़ता है। मैंने खबरों में देखा कि दिल्ली में सब फ्री मिल रहा।’
हाल के बरसों के चुनाव में एक बात कॉमन मिलेगी, सब जगह पार्टियों ने धड़ाधड़ मुफ्त की योजनाओं का ऐलान किया। मध्य प्रदेश हो, महाराष्ट्र या फिर अब दिल्ली – कोई भी दल जनता को फ्री में सेवा-सुविधाएं देने का वादा करने से पीछे नहीं हट रहा।
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दिल्ली में चुनावी पारा गर्म है, तो बात वहीं पर फोकस रखते हैं। आम आदमी पार्टी मुफ्त बिजली और पानी का वादा करके दिल्ली में आई थी। उसने वादा पूरा किया भी। AAP सरकार ने एक निश्चित लिमिट तक फ्री बिजली-पानी दिया। लेकिन ऐसा लगता है कि मौजूदा विधानसभा चुनाव में विकास के कामों की लिस्ट छोटी पड़ गई है, इसलिए आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल को धड़ाधड़ योजनाओं का ऐलान करना पड़ा।
केजरीवाल ने पहले बुजुर्गों के लिए पेंशन स्कीम को दोबारा शुरू करने का ऐलान किया। फिर, ऑटो चालकों की बेटियों की शादी, वर्दी सिलाई, लाइफ इंश्योरेंस वगैरह को लेकर घोषणाएं कीं। इसी बीच महिला सम्मान योजना भी आ गई, जिसके तहत महिलाओं को हर महीने एक हजार रुपये दिए जाने हैं। चुनाव बाद यह रकम 21 सौ रुपये करने का वादा है। बुजुर्गों के लिए संजीवनी योजना और पुजारियों-ग्रंथी के लिए भी स्कीम का वादा किया गया।
इस मामले में कांग्रेस भी पीछे नहीं रही। वह प्यारी दीदी योजना लेकर आ गई। याद होगा, पिछले साल ऐसी ही लड़ाई महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान भी देखने को मिली थी, जहां सभी दलों में मुफ्त का ऐलान करने की होड़ मची थी।
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इसमें कोई शक नहीं कि इस तरह की योजनाएं गरीब और वंचित समाज के लिए जरूरी हैं, लेकिन अति किसी की भी बुरी होती है। सोचिए, अगर देश की राजधानी में भी सारी सुविधाएं मुफ्त देने की नौबत आ गई है, तो बाकी जगहों पर क्या हाल होगा? और इन वादों का बोझ किस पर पड़ेगा?
पिछले साल अगस्त-सितंबर की बात है, जब हिमाचल प्रदेश में इतना बड़ा आर्थिक संकट खड़ा हो गया कि जनता से किए चुनावी वादों को पूरा करने के लिए भी बजट नहीं बचा। वहां के मंत्रियों ने तब दो महीने तक सैलरी नहीं लेने का कदम उठाया। अब इससे कितनी मदद मिली होगी, आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिए!
आज की तारीख में पंजाब, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना जैसे राज्य अपने ही वादों के बोझ से दबे हुए हैं। मध्य प्रदेश की लाड़ली बहना योजना ने राज्य में भाजपा की वापसी जरूर करा दी, लेकिन इस स्कीम और बाकी दूसरी योजनाओं के चलते राज्य सरकार को बीते वित्तीय वर्ष में 76 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज लेना पड़ा। पंजाब की बात करें, जहां आम आदमी पार्टी की ही सरकार है, तो वहां जीडीपी के मुकाबले कर्ज 44 फीसदी से ज्यादा है।
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इस तरह के आंकड़ों की कमी नहीं है। समस्या है कि इसके बाद भी हर चुनाव के साथ यह आदत बढ़ती जा रही है। इसे रेवड़ी कल्चर यूं ही नहीं कहते। इनकी वजह से विकास योजनाओं के लिए जरूरी बजट नहीं बचता। राजस्व में असंतुलन पैदा हो रहा है और कर्ज बढ़ता जा रहा है।
भारत जैसे विकासशील देश को ऐसी योजनाओं को संतुलित तरीके से लागू करने की आवश्यकता है, जिससे समाज के वंचित वर्गों की सहायता हो और अर्थव्यवस्था पर अनावश्यक दबाव न पड़े।