
Ram Katha
बृजेश सती उत्तराखंड से
उत्तराखंड (Uttarakhand) के पर्वतीय अंचलों में लोकजीवन, संस्कृति और अध्यात्म का अनूठा संगम देखने को मिलता है। यहां के धार्मिक आयोजन, मेले और पारंपरिक नृत्य सिर्फ मनोरंजन के साधन नहीं, बल्कि इनमें दैवीय शक्ति और गहरी आस्था भी निहित होती है। इन्हीं अनूठे आयोजनों में से एक है – रम्माण नृत्य (Ramman Dance), जो चमोली जनपद के पैनखंडा क्षेत्र में हर साल विशेष परंपरा के तहत आयोजित होता है।
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नृत्य के माध्यम से राम कथा (Ram katha) का मंचन
रम्माण नृत्य, भगवान राम की लीलाओं को बिना किसी संवाद के, केवल नृत्य और अभिनय के ज़रिए प्रस्तुत करता है। इसे रामलीला (Ramlila) की मूक शैली भी कहा जा सकता है, जिसमें संवाद की जगह ‘जागर’ गायन और पारंपरिक वाद्ययंत्रों की ताल होती है। खास बात यह है कि रम्माण में कलाकार संवाद नहीं बोलते, बल्कि नृत्य के जरिए भाव व्यक्त करते हैं और राम कथा (Ram katha) कहते हैं।
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यह आयोजन रामायण (Ramayan) की प्रमुख घटनाओं को जीवन्त रूप में दर्शाता है – जैसे राम जन्म, सीता स्वयंवर, वनवास, रावण द्वारा सीता हरण, राम-हनुमान मिलन, लंकादहन और राम का राजतिलक।
यूनेस्को की मान्यता और वैश्विक पहचान
रम्माण नृत्य (Ramman Dance) की विशिष्टता और सांस्कृतिक महत्व को देखते हुए, यूनेस्को ने वर्ष 2009 में इसे ‘विश्व की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर’ (Intangible Cultural Heritage) के रूप में मान्यता दी। यह उत्तराखंड की संस्कृति के लिए एक गौरवपूर्ण क्षण था। इसके पहले, 2008 में दिल्ली में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में रम्माण को पहली बार राष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत किया गया था। यहीं से इस नृत्य शैली को वैश्विक पहचान मिलने की शुरुआत हुई।
ऐतिहासिक और धार्मिक पृष्ठभूमि
पैनखंडा वह पवित्र स्थल है, जिसे आद्य शंकराचार्य की तपोभूमि माना जाता है। यह क्षेत्र शिव, शक्ति और नारायण की साधना स्थली रहा है। यहां के मंदिरों, मठों और पुरानी धार्मिक परंपराओं में रम्माण जैसी विधा का उल्लेख मिलता है। ऐसा भी माना जाता है कि शंकराचार्य की दक्षिण भारतीय पृष्ठभूमि के कारण यहां मुखौटों के प्रयोग वाली नाट्यशैली की शुरुआत हुई, जो आज भी रम्माण नृत्य का अहम हिस्सा है।
राम कथा (Ram katha) का अनोखा अंदाज, कहां और कैसे होता है रम्माण?
रम्माण नृत्य (Ramman Dance) मुख्य रूप से चमोली जनपद के सलूडडूंग्रा, डुग्री, भरोसी और सेलंग गांवों में आयोजित होता है। यह आयोजन बैसाखी के पर्व से शुरू होकर करीब 10 से 12 दिनों तक चलता है। पहले दिन स्थानीय भूमियाल देवता की पूजा की जाती है, फिर पंचों और पुरोहितों की सहमति से आयोजन की तिथि तय की जाती है।
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इस दौरान गांव में उत्सव जैसा माहौल होता है। 6 गते बैसाख को मुखौटे बाहर आते हैं और नृत्य की तैयारी शुरू हो जाती है। आयोजन से एक दिन पूर्व की रात को ‘सिर्तू’ नामक कार्यक्रम होता है, जिसमें पूरी रात जागर और नृत्य चलते हैं। अगले दिन पारंपरिक परिधानों में कलाकार भगवान राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान की भूमिका निभाते हैं।
मुखौटे रम्माण की पहचान
रम्माण नृत्य (Ramman Dance) की सबसे आकर्षक विशेषता होती है – काष्ठ मुखौटे (Wooden Masks)। ये मुखौटे भोजपत्र की लकड़ी से बनाए जाते हैं और धार्मिक विधि-विधान से इनकी पूजा की जाती है। कुल 18 प्रकार के मुखौटे तैयार किए जाते हैं, जिनमें गणेश, कालीका, गुन्त्री, सूरज, वाघ, भालू, हिरन, प्रह्लाद और भगवान नृसिंह जैसे देवी-देवताओं के चेहरे शामिल होते हैं।
रामलीला और रम्माण में अंतर (Difference between Ramlila and Ramman)
जहां पारंपरिक रामलीला संवाद और गायन पर आधारित होती है, वहीं रम्माण एक मूक नाट्य शैली है, जिसमें संवाद की जगह भाव, नृत्य और ‘जागर’ गायन होता है। यही कारण है कि रम्माण को रामायण के मंचन की सबसे अलग और विशिष्ट शैली माना जाता है, जो केवल उत्तराखंड के इस सीमांत क्षेत्र में ही प्रचलित है।
https://en.wikipedia.org/wiki/Ramlila
https://uplive24news.blogspot.com/2025/04/Uttarakhands%20Ramman%20is%20a%20unique%20Ram%20Katha.html
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