

एक रुपये में आज आप क्या पा सकते हैं? टॉफी, च्यूंगम, कॉपी पर लगने वाले स्टिकर…! अब तो जाड़ों में भी कोई एक रुपये का धनिया नहीं देता और अगर कहीं रेट में एक रुपये का पेच फंस रहा हो तो या तो लेने वाला छोड़ देता है या फिर देने वाला। लेकिन, एक समय यही एक-एक रुपया बटोर कर भारत आए अंग्रेज मालामाल हो गए थे। यह करामात थी हमारे कुंभ की।
पहले अकबर ने लगाया था लगान
प्रयागराज में लगने वाले कुंभ (Prayagraj Kumbh) को शुरुआत में माघ मेले के नाम से जाना जाता था। 7वीं सदी में भारत यात्रा पर आए चीनी यात्री ह्वेनसांग ने प्रयागराज में लगने वाले मेले का जिक्र किया है। उसके दस्तावेजों के मुताबिक, कन्नौज के राजा हर्षवर्धन हर 5 साल में एक बार संगम पर माघ के महीने में अपनी पूरी संपत्ति दान कर देते थे।
बाद में भी अलग-अलग ऐतिहासिक दस्तावेजों में माघ मेले का जिक्र मिलता है। मुगलों के दौर की बात करें तो अकबर ने फरवरी 1556 में गद्दी संभाली थी। हिंदुओं का समर्थन हासिल करने के लिए उसने गैर-मुस्लिमों पर लगने वाले जजिया कर को खत्म कर दिया। हालांकि उसके दौर में ही कुंभ मेले पर लगान लगाने की परंपरा शुरू हुई।
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अकबर (Akbar) के इस कदम का काफी विरोध हुआ था। हिंदुओं ने इस कर को वापस लेने की मांग की। आखिरकार अकबर को अपना फैसला वापस लेना पड़ा था।
जब नवाब ने दी थी छूट
अवध पर जब नवाबों का शासन शुरू हुआ, तो प्रयागराज (Prayagraj) भी उनके क्षेत्र में आ गया। आसफ-उद-दौला 1775 में अवध का नवाब बना था। उस वक्त भी हिंदू दर्शनार्थियों को टैक्स अदा करना पड़ता था। हालांकि 1790 में टैक्स में छूट मिल गई।
नवाब की तरफ से प्रयागराज में मीर मोहम्मद अमजद को प्रशासनिक अफसर नियुक्त किया गया था। अमजद ने न केवल टैक्स में छूट दिलाई, बल्कि श्रद्धालुओं के लिए बेहतर इंतजाम भी किए।
अंग्रेजों ने टैक्स को कमाई का जरिया बनाया
मुगल कमजोर पड़ना शुरू हुए तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। अवध के नवाब ने सन 1801 में प्रयागराज को, जो तब इलाहाबाद था, कंपनी को सौंप दिया था। अंग्रेजों ने इलाहाबाद का अपने हिसाब से विकास कराना शुरू किया। अब उन लोगों ने मेले से टैक्स वसूलना शुरू कर दिया।
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अंग्रेज चाहते थे कि उन्हें आमदनी हो, लेकिन आम भारतीय इसका बुरा न मानें ताकि उनका सहयोग हासिल होता रहे। ऐसे में उन्होंने टैक्स वसूलने की जिम्मेदारी एक स्थानीय व्यक्ति को सौंप दी।
हालांकि यह व्यवस्था केवल पांच साल ही चली। 1806 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कमान अपने हाथों में ले ली। Kama Maclean की किताब Pilgrimage and Power: The Kumbh Mela in Allahabad के मुताबिक, अंग्रेजों ने कुंभ में स्नान करने के इच्छुक लोगों पर एक रुपये टैक्स लगा दिया। यानी कि अगर किसी को संगम में डुबकी लगानी होती तो पहले अंग्रेजों को एक रुपये देना होता।
तब एक रुपये की कीमत बहुत हुआ करती थी। आम आदमी एक रुपये में पूरा महीना गुजार सकता था। इस लिहाज से यह टैक्स बहुत ज्यादा था। तमाम श्रद्धालु अपने पूरे परिवा के साथ कुंभ आते हैं। तब भी ऐसा ही था। अगर परिवार में पांच सदस्य भी हुए तो दो सदी पहले टैक्स में पांच रुपये देना बहुत बड़ी बात थी।
टैक्स की वजह से कुंभ में स्नान करने वाले श्रद्धालुओं की संख्या काफी घट गई थी। फिर 1808 में जब माघ मेला लगा, तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय सैनिकों को टैक्स में छूट दे दी। दरअसल कंपनी इस कदम के जरिये भारतीय सैनिकों का दिल जीतना चाहती थी, जिससे वे दिल लगाकर अंग्रजों के लिए काम करें।
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रीवा के राजकुमार की बगावत
कुंभ और माघ मेले पर टैक्स लगाकर अंग्रेजों ने अपना खजाना भर लिया था, लेकिन इससे आक्रोश भी बढ़ता जा रहा था। सन 1833 में अंग्रेजों ने रीवा को पांच हजार रुपये से ज्यादा का बिल भेज दिया। रीवा के राजकुमार ने कहा कि वह टैक्स जमा नहीं करेंगे, क्योंकि उन्होंने स्नान नहीं किया है। हालांकि अंग्रेजों का कहना था कि उन्होंने अपनी सेवा में प्रयाग के लोगों को नियुक्त किया था, इसलिए टैक्स देना पड़ेगा।
तीन साल बाद फिर एक मामला खड़ा हो गया। 1836 में रीवा स्टेट ने ईस्ट इंडिया कंपनी से अनुरोध किया कि 5000 लोगों के दल को स्नान की छूट दी जाए। पर अंग्रेजों ने केवल 1000 लोगों को छूट देने की बात की। गुस्साए रीवा नरेश ने कुंभ की यात्रा ही रद्द कर दी।
इन घटनाओं से अंग्रेजों को लेकर गुस्सा बढ़ता जा रहा था। आखिरकार 1840 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुंभ और माघ मेले पर लगने वाले टैक्स को रद्द कर दिया।
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