
फ्रेंडली फाइट… इस शब्द से आप परिचित ही होंगे। कहीं और इस तरह की दोस्ताना लड़ाई भले न दिखी हो, लेकिन राजनीति में तो जरूर देखी होगी। दिल्ली विधानसभा चुनाव को देख लीजिए। आम आदमी पार्टी (AAP) और कांग्रेस ने भाजपा को हराने के लिए आम चुनाव में मिलकर हुंकार भरी थी, लेकिन दिल्ली में दोनों ने अलग रास्ता पकड़ लिया। यहां तक भी सब ठीक था, लेकिन दोनों के बीच जिस तरह की बयानबाजी हुई, उससे समझ नहीं आ रहा कि दोनों का असली दुश्मन कौन है?
कांग्रेस के अजय माकन ने अरविंद केजरीवाल को एंटी-नेशनलिस्ट कहा, तो आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को बीजेपी की टीम बता दिया। पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता पवन कुमार बंसल कहते नजर आए कि आम आदमी पार्टी सिर्फ उनका नाम है, वे आम आदमी नहीं हैं।
कमोबेश यही स्थिति विपक्ष के पूरे I.N.D.I.A. ब्लॉक में दिखाई देती है। समय-समय पर ऐसे बयान आते रहते हैं, जिनसे लगता है कि भाजपा के खिलाफ एक होने की विपक्ष की कोशिशें फिर दम तोड़ने वाली हैं।
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कुछ बयान देखिए –
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि लोकसभा चुनाव के बाद I.N.D.I.A. की कोई बैठक नहीं हुई। यह गठबंधन केवल लोकसभा चुनाव तक ही था, तो इसे खत्म कर देना चाहिए। इसके पास न कोई अजेंडा है और न ही कोई लीडरशिप।
शिवसेना (UBT) सांसद संजय राउत ने इसके बाद कहा, ‘मैं उमर अब्दुल्ला से सहमत हूं। यदि I.N.D.I.A. के सहयोगियों को लग रहा है कि अब इसका कोई वजूद नहीं है तो इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।’ संजय राउत ने चेताया कि अगर एक बार I.N.D.I.A. टूटा तो फिर दोबारा नहीं बन पाएगा।
हालांकि कुछ सहयोगियों को लगता है कि मतभेद होना बड़ी बात नहीं। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के तेजस्वी यादव ने बयान दिया कि कांग्रेस और AAP जैसे दलों में मतभेद होना अस्वाभाविक नहीं। गठबंधन का मुख्य उद्देश्य लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराना था और यह गठबंधन उसी लक्ष्य तक सीमित था।
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तो क्या विपक्ष में आपस में बात भी नहीं होती?
बयानों से तो ऐसा ही लगता है। दिल्ली चुनाव (Delhi election) के पहले भी यह ऊहापोह बना रहा कि क्या आप और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ेंगी। बाद में केजरीवाल (Arvind Kejriwal) ने ट्वीट किया कि उनकी पार्टी अकेले जाएगी। यहां हर कदम पर संवाद की कमी साफ नजर आती है। इसी वजह से छोटी बात भी बड़ी बन जाती है और मतभेद मीडिया के जरिये सुलझाए जाते हैं।
I.N.D.I.A. ब्लॉक की पहली बैठक 23 जून 2023 को पटना में हुई थी। इसे बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने बुलाया था। आखिरी बैठक 1 जून 2024 को हुई। इसी के बाद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने दावा किया कि विपक्ष इस बार 295 या इससे ज्यादा सीटें जीतने जा रहा है। तब से ब्लॉक की कोई बैठक नहीं हुई। कोई भी राजनीतिक लड़ाई इस तरह नहीं चल सकती, जहां स्टार्ट-स्टॉप अंदाज में डायलॉग होता हो।
सबके अपने हित, कोई झुकने को तैयार नहीं
यूपी में समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) मजबूत है, बिहार में लालू प्रसाद यादव की RJD, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की TMC के आगे किसी की नहीं चल सकती, तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने खुद को अपराजेय मान लिया है। कांग्रेस इन्हें जोड़ने का काम करती है, जो खुद इन राज्यों में दूसरी या तीसरी हैसियत की पार्टी है और कई दूसरे सूबों में प्रभावी भूमिका निभाती है।
लेकिन असल मसला यह है कि जो दल जिस राज्य में मजबूत है, वह वहां झुकने को तैयार नहीं। बड़े लक्ष्य के लिए छोटे बलिदान देने पड़ते हैं – लेकिन ऐसा लगता है कि विपक्षी पार्टियां बीजेपी और पीएम नरेंद्र मोदी को हराने का बड़ा लक्ष्य तो पाना चाहती हैं, पर बलिदान करने को तैयार नहीं।
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AAP को दिल्ली में समझौता इसलिए मंजूर नहीं था, क्योंकि कांग्रेस से सीटें बांटनी पड़ती। यही हाल TMC, RJD, SP, NCP और तमाम दूसरे दलों का है। खुद कांग्रेस भी इसी रास्ते पर चल रही है। लोकसभा चुनाव में कदरन बेहतर प्रदर्शन के बाद उसने सहयोगियों को भाव देना कम कर दिया था। हरियाणा और महाराष्ट्र में उसने अपने मन की करी और आखिर में परिणाम भुगता।
थोड़े ही समय में ऊब जाते हैं सब
विपक्ष जुटता तो बहुत जोश में है, लेकिन एक-दो हार या किसी छोटी जीत के बाद ही उनमें बिखराव शुरू हो जाता है। आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के खिलाफ खड़ा मोर्चा हो या BJP के खिलाफ हाल में हुए गठबंधन- सभी की यही कहानी है।
हार की सूरत में कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता। वहां एक-दूसरे को दोष देने का खेल शुरू हो जाता है। देखा जाए तो यह वाजिब भी है। कोई क्षेत्रीय पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर मिली पराजय का भार अपने पर लेकर अपने राज्य में अपनी हैसियत क्यों कमजोर करेगी? लेकिन जब सफलता मिलती है, तो कई दावेदार खड़े हो जाते हैं।
I.N.D.I.A. ब्लॉक के साथ ऐसा होगा, यह इसके बनने के साथ ही तय हो गया था। बस यह देखना बाकी था कि इसमें कितना वक्त लगता है। ऐसा लग रहा है कि वह वक्त आ गया है। भले ही ब्लॉक के बिखरने का औपचारिक ऐलान न हो, लेकिन अब इसमें कोई कसर भी बाकी नहीं रह गई है।