

राजा विक्रमादित्य ने एक महाभोज रखा। इसमें देशभर से विद्वानों, ब्राह्मणों, व्यापारियों और दरबारियों को आमंत्रित किया गया। महाभोज में चर्चा शुरू हुई कि संसार में सबसे बड़ा दानी कौन है? सभी ने एक स्वर से विक्रमादित्य को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ दानवीर बताया। राजा सबके हावभाव देख रहे थे। उनकी नजर एक ब्राह्मण पर पड़ी। वह अपनी राय नहीं दे रहा था, लेकिन उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह सबके विचार से सहमत नहीं है।
विक्रमादित्य ने उनसे पूछा, ‘आप चुप क्यों हैं?’ ब्राह्मण ने डरते हुए जवाब दिया, ‘मेरी राय इन सबसे अलग है। ऐसे में मेरी बात कौन सुनेगा?’ राजा ने कहा, ‘आप अपना विचार बताएं।’ इससे उसकी उलझन और बढ़ गई। वह सोचने लगा कि अगर वह सच नहीं बताता है, तो झूठ का पाप लगेगा और सच बोला तो राजा के गुस्से का शिकार बनना पड़ सकता है।
विक्रमादित्य की जिज्ञासा और बढ़ गई। उन्होंने ब्राह्मण से कहा, ‘आप बिना डर के अपनी बात कहें।’ तब ब्राह्मण ने कहा, ‘महाराज, आप बड़े दानी हैं। यह पूरी तरह सच है, लेकिन दुनिया में सबसे बड़े दानी नहीं हैं।’ यह सुनकर सब चौंक गए। सभी ने एक स्वर में पूछा कि फिर कौन सबसे बड़ा दानी है?
ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘समुद्र पार एक राज्य है। वहां के राजा कीर्कित्तध्वज रोज जब तक एक लाख सोने की मुद्राएं दान नहीं कर देते, तब तक पानी भी नहीं पीते।’ ब्राह्मण ने आगे कहा, ‘मेरी बात झूठी साबित हुई, तो मैं कोई भी दंड झेलने को तैयार हूं।’ यह सुनकर विशाल कक्ष में सन्नाटा छा गया।
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ब्राह्मण ने आगे बताया, ‘कीर्कित्तध्वज के राज्य में मैं कई दिनों तक रहा। हर रोज स्वर्ण मुद्रा भी लेने गया।’ राजा विक्रमादित्य ब्राह्मण की साफगोई से खुश हुए। उन्होंने उन्हें पुरस्कार देकर आदर के साथ विदा किया। इसके बाद विक्रम ने साधारण वेश बनाकर दोनों बेतालों को याद किया। दोनों प्रकट हुए, तो राजा ने उनसे कहा कि वे उन्हें राजा कीर्कित्तध्वज के राज्य में पहुंचाएं। बेतालों ने बिना देर किए राजा को वहां पहुंचा दिया।
महल के द्वार पर पहुंचकर विक्रमादित्य ने अपना परिचय उज्जयिनी नगर के एक साधारण नागरिक के रूप में दिया। उन्होंने कहा कि वह कीर्कित्तध्वज से मिलना चाहते हैं। कीर्कित्तध्वज वहां आए, तो विक्रम ने उनके यहां नौकरी की मांग की। कीर्कित्तध्वज ने पूछा, ‘आप कौन-सा काम कर सकते हैं?’ विक्रमादित्य ने कहा, ‘जो कोई नहीं कर सकता, मैं वह काम करके दिखाऊंगा।’
राजा कीर्कित्तध्वज इस जवाब से खुश हुए। उन्होंने विक्रमादित्य को द्वारपाल नियुक्त किया। तब उन्होंने खुद देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज वाकई हर दिन सोने की एक लाख मुद्राएं दान करने से पहले अन्न-जल ग्रहण नहीं करते। उन्होंने यह भी देखा कि राजा रोज शाम अकेले कहीं जाते और जब लौटते, तो उनके हाथ में एक लाख स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली होती। एक शाम उन्होंने छिपकर कीर्कित्तध्वज का पीछा किया।
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उन्होंने देखा कि वह समुद्र में स्नान करके एक मंदिर में जाते हैं। वहां एक प्रतिमा की पूजा कर खौलते तेल के कड़ाह में कूद जाते हैं। ऐसा करने से उनका पूरा शरीर जल जाता है। फिर कुछ जोगनियां उस जले भुने शरीर को कड़ाह से निकालकर नोंच-नोंचकर खाती हैं। जब उनका पेट भर जाता है, तो वे वहां से चली जाती हैं। उसके बाद प्रतिमा वाली देवी प्रकट होती हैं और अमृत की बूंदों से कीर्कित्तध्वज को जीवित करती हैं। फिर अपने हाथों से सोने की मुद्राएं उनको देती हैं। हर सुबह वह उन्हीं मुद्राओं को दान करते हैं। यह देख सारा रहस्य विक्रम की समझ में आ गया।
अगले दिन राजा कीर्कित्तध्वज के सोने की मुद्राएं प्राप्त कर चले जाने के बाद विक्रमादित्य ने भी नहा-धो कर देवी की पूजा की। तेल के कड़ाह में कूद गए। जोगनियां आईं और उनके जले-भुने शरीर को नोंचकर खाकर चली गईं। फिर देवी ने उन्हें जीवित किया। जब देवी ने उन्हें मुद्राएं दीं, तो विक्रम ने यह कहकर लेने से मना कर दिया कि देवी की कृपा ही उनके लिए सर्वोपरि है। यह क्रिया उन्होंने 7 बार की। सातवीं बार देवी ने उनसे कहा, ‘तुम कुछ भी मांग सकते हो वत्स।’ विक्रम मानो इसी की ताक में थे। उन्होंने देवी से वह थैली ही मांग ली, जिससे सोने की मुद्राएं निकलती थीं।
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देवी ने जैसे ही वह थैली उन्हें सौंपी तो एक और चमत्कार हुआ। मंदिर और वहां विराजमान मूर्ति गायब हो गए। दूर तक केवल समुद्र तट दिखता था। दूसरे दिन जब कीर्कित्तध्वज वहां पहुंचे तो बहुत निराश हुए। उनका वर्षों से चला आ रहा एक लाख सोने की मुद्राएं दान करने का नियम आज टूट गया। अन्न-जल त्याग कर उन्होंने खुद को कमरे में बंद कर लिया। उनका शरीर कमजोर होने लगा। जब उनकी हालत बिगड़ने लगी, तो विक्रम उनके पास गए और उदासी का कारण पूछने लगे। कीर्कित्तध्वज ने विक्रम को सब बताया, तो विक्रम ने उन्हें देवी की थैली दे दी और कहा, रोज-रोज तुम्हें कड़ाह में कूदकर प्राण गंवाते देख मैं द्रवित हो गया था। इसलिए मैंने एक दिन देवी से वह थैली ही ले ली।
वह थैली राजा कीर्कित्तध्वज को देकर उन्होंने अपने उस वचन की भी रक्षा कर ली, जो देकर उन्हें कीर्कित्तध्वज के दरबार में नौकरी हासिल की थी। राजा कीर्कित्तध्वज ने उनका परिचय जानकर उन्हें सीने से लगा लिया। उन्होंने कहा कि सचमुच इस धरती पर उनसे श्रेष्ठ दानवीर कोई नहीं है, क्योंकि उन्होंने इतनी शारीरिक परेशानियां झेलने के बाद प्राप्त की सोने की मुद्राओं की थैली भी बिना हिचकिचाहट दान कर दी।