

किसी वक्त में, किसी राज्य में एक किसान रहता था। वह गरीब था, पर बहुत सुखी। उतना कमाता, जितने में घर चल जाए। उसके परिवार ने भी कभी गैर जरूरी इच्छाएं जाहिर नहीं की। उस राज्य का राजा एक रात निकला अपनी प्रजा का हाल जानने। किसान की झोपड़ी के बाहर जाकर वह ठिठक गया। अंदर से हंसने-गाने की आवाज आ रही थी। इतनी गरीबी में रहने के बाद भी इतनी खुशी…
राजा ने सोचा और आगे बढ़ गया। कुछ दिनों बाद जब वह दोबारा रात में भेष बदल कर निकला था, तब फिर किसान की झोपड़ी के सामने से गुजरा। इस बार भी हंसी-ठहाके। राजा को अब आश्चर्य हुआ और उसने अगले दिन दरबार में अपने महामंत्री से इसकी वजह पूछी।
महामंत्री ने किसान के बारे में पता किया और राजा से बताया, ‘महाराज, वह किसान अभी 99 के फेर में नहीं पड़ा।’ ‘यह कौन-सा फेर है?’ राजा के पूछने पर महामंत्री ने सोने के 99 सिक्कों से भरी थैली मंगवाई और आज्ञा पाकर उसे किसान की झोपड़ी के बाहर रख दिया।
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किसान और उसकी पत्नी ने जब सिक्के पाए, तो खुश हो गए, लेकिन कुछ ही देर के लिए। उन्होंने सोचा, ’99 सुनने में अच्छा नहीं लगता। कितना अच्छा होता अगर सिक्के पूरे 100 होते!’ उस दिन से पूरा परिवार 99 को 100 करने के चक्कर में लग गया। हंसी गायब हो गई और चिंता ने घेर लिया। यही है 99 का फेर।
कांग्रेस भी कुछ इसी फेर में उलझी हुई लगती है। 2024 के आम चुनाव में जब कांग्रेस ने 99 सीटें जीतीं, तो लगा कि एक दशक से जो कहानी ट्रैक से उतरी हुई थी वह अब वापस पटरी पर आने लगी है। पार्टी समर्थकों को यह उम्मीद थी कि अब यहां से कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर होता चला जाएगा। यही वजह है कि विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. में कांग्रेस का भाव अचानक से बढ़ गया और फैसलों में उसकी छाप दिखने लगी।
हालांकि 6 महीने भी नहीं बीते और कांग्रेस फिर से संघर्षों में घिरी दिखने लगी। आम चुनाव के जरिये उसने जितनी बढ़त बनाई थी, लग रहा है कि वह अब गायब हो चुकी है। कांग्रेस का उम्मीद जताने वाला वह प्रदर्शन अब बहुत दूर की बात लग रहा है। हरियाणा, महाराष्ट्र, (Haryana and Maharashtra election) झारखंड, जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में उम्मीद से कमतर परिणाम ने कांग्रेस को मुश्किलों के नए भंवर में फंसा दिया है।
इस स्थिति तक कैसे पहुंची कांग्रेस?
नतीजों को पढ़ने में चूक, पहला कारण तो यही लगता है। 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 99 सीटें मिलीं और उसने इसे जनता के बदलते मूड के रूप में पेश किया। हालांकि वह इस तथ्य को बार-बार कमतर करके देखती रही कि भाजपा (BJP) ने उससे लगभग ढाई गुना ज्यादा, 240 सीटें हासिल की हैं।
कांग्रेस (Congress) के कर्ताधर्ताओं को यह फैक्ट अपने मुफीद ज्यादा लग रहा था कि 2019 में अकेले दम 303 लोकसभा सीटें जीतकर बहुमत हासिल करने वाली भाजपा (BJP) इस दफा जादुई आंकड़े से चूक गई। लेकिन उन्होंने यह फैक्ट नहीं देखा कि उनके और भाजपा (Congress vs BJP) के बीच में अब भी जमीन-आसमान का अंतर है।
कांग्रेस ने अपने प्रदर्शन को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर आंका। अगर इस परिप्रेक्ष्य में देखें कि 2019 के मुकाबले 2024 में उसने सीटों की संख्या लगभग दोगुनी कर ली, तो इसे शानदार प्रदर्शन कहा जाएगा।
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लेकिन मसला यह है कि 2014 और 2019 में कांग्रेस का प्रदर्शन किसी भी लिहाज से उसके लायक नहीं था। 2014 में उसके 44 सांसद जीते और 2019 में केवल 52 सांसद। दोनों बार उसे नेता विपक्ष का पद तक नहीं मिला। अब इनकी तुलना में 99 जरूर अच्छा दिखता है, लेकिन क्या कांग्रेस खुद को इतने के ही लायक समझती है?
नतीजों को स्वीकार नहीं करना
चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद कांग्रेस (Congress) ने हर स्तर पर इसे नकारने का प्रयास किया। कांग्रेस कहती रही कि यह भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की नैतिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत हार है। सितंबर में अमेरिका गए राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने चुनाव की निष्पक्षता तक पर सवाल उठा दिए।
उन्होंने आरोप लगाया कि यह एक स्वतंत्र नहीं, नियंत्रित चुनाव था। अपनी जीत का उत्सव मनाना ठीक है, लेकिन इसके लिए दूसरे की जीत को कमतर करना सही नहीं, खासकर राजनीति में। अगर 240 सीटें जीतने वाली पार्टी राजनीतिक और नैतिक रूप से हार गई, तो फिर 99 सीटें जीतकर कांग्रेस कैसे सही हो सकती है? भाजपा ने 400 पार का नारा दिया था, लेकिन अपने लिए बड़े लक्ष्य तय करना कोई गलत तो नहीं। क्या कांग्रेस बस 99 का लक्ष्य लेकर ही उतरी थी?
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जीत के बाद कांग्रेस ने जिस तरह की आक्रामकता दिखाई, वह भी जनता को रास नहीं आई। ऐसा लग रहा था कि वह जनमत को स्वीकार नहीं कर रही। कांग्रेस का यह कहना कि भाजपा (BJP) और नरेंद्र मोदी को जनता ने नकार दिया, समझ से परे था। आखिर उन्होंने 240 सीटें जनता के वोट से ही तो जीतीं। भाजपा को 37.5 प्रतिशत वोट मिले थे और कांग्रेस को 20.5। अगर भाजपा को देश ने नकार दिया तो फिर कांग्रेस के मुकाबले उसे 17 प्रतिशत ज्यादा वोट कैसे मिले?
मुद्दों को पहचानने में चूक
लोकसभा चुनाव परिणाम से अति आत्मविश्वास में भरी कांग्रेस विधानसभा चुनावों में मुद्दों को ठीक से नहीं पकड़ पाई। कांग्रेस अपने अंदरुनी टकराव को भी नहीं संभाल सकी। हरियाणा (Haryana) में उसके पास जीतने का पूरा मौका था, लेकिन वहां भूपेंद्र सिंह हुड्डा और शैलजा कुमारी के बीच का द्वंद पूरी पार्टी को ले डूबा। ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बैठे नेताओं को इसका पता नहीं था, लेकिन उन्होंने कुछ किया नहीं। उन्हें लगता रहा कि हरियाणा में तो जीत ही जाएंगे और भाजपा ने इसी का फायदा उठा लिया।
महाराष्ट्र की बात करें, तो वहां कांग्रेस शरद पवार (Sharad Pawar) के साथ का फायदा उठा सकती थी, लेकिन वह पुराने मुद्दों में ही उलझी रही। उसके नेता बार-बार संविधान और आरक्षण (Reservation) पर संकट का खतरा दिखाते रहे। हालांकि जनता तब तक राज्य से जुड़े मुद्दों की ओर मुड़ चुकी थी। भाजपा-शिवसेना शिंदे गुट और एनसीपी अजित पवार गुट की महायुति सरकार ने लाड़की बहिन योजना के जरिये महिलाओं का समर्थन हासिल कर लिया, जबकि कांग्रेस पुरानी बातों में उलझी रही। जब तक वह हालात भांपती, तब तक देर हो चुकी थी।
अब स्थिति यह है कि कहने के लिए कांग्रेस जम्मू-कश्मीर और झारखंड में भाजपा को सरकार से दूर रखने मे सफल रही है, लेकिन वहां भाजपा की हार में कांग्रेस का कोई योगदान नहीं है। वहां कांग्रेस अगर विपक्ष में जाने से बच पाई तो अपने सहयोगियों नेशनल कॉन्फ्रेंस और झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की वजह से। जहां-जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से हुआ, वहां-वहां उसे हार मिली।
आने वाले चुनावों पर असर
लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस ने विपक्षी गठबंधन के दूसरे सहयोगियों के साथ बहुत कड़ी बार्गेनिंग की। यहां तक कि यूपी (UP election) में हुए विधानसभा उपचुनाव तक में कांग्रेस की बात समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के साथ नहीं बन पाई। उसके इस रवैये से सहयोगी दलो में नाराजगी है।
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आने वाले वक्त में बिहार (Delhi and Bihar election), असम, केरल जैसे अहम राज्यों में इलेक्शन होना है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी (AAP) ने पहले ही कह दिया है कि कोई गठबंधन नहीं होगा। बिहार में भी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) अब हावी होने की कोशिश करेगा। वैसे भी वहां कांग्रेस छोटे भाई की भूमिका में आ चुकी है।
कांग्रेस (Congress party) के लिए अब अपने ही सहयोगियों से डील करना आसान नहीं होगा। उसे गठबंधन में हर एक सीट के लिए मजबूती से अपनी बात रखनी होगी। यह परीक्षा केंद्रीय नेतृत्व का भी है। जब मल्लिकार्जुन खरगे (Mallikarjun Kharge) को पार्टी की कमान सौंपी गई, तो लगा कि शायद फैसले लेने में तेजी आएगी और कुछ नया रूप-रंग देखने को मिलेगा।
लेकिन अब भी कांग्रेस गांधी परिवार के इर्द-गिर्द सिमटी दिखाई देती है। आम चुनावों में बेहतर प्रदर्शन से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी (Rahul Gandhi, Priyanka Gandhi) ने जो राजनीतिक पूंजी जोड़ी थी, वह अब खत्म हो चुकी है। उन्हें फिर से संघर्ष करना होगा।