

शहर की गलियों में सदियों से गूंजती एक आवाज, एक नग्न फकीर की, जिसने न बादशाहत को सिर झुकाया, न किसी धर्म के दायरे में बंधा। वह सिर उठाकर बादशाहत के खिलाफ खड़ा था और जब तलवार उसके गले पर आई, तब भी उसके लबों पर सच का ही कलमा था। यह कहानी है सरमद शहीद की, एक सूफी, एक शायर, एक प्रेमी और एक विद्रोही की।
कहते हैं, सरमद की आंखों में ऐसा नूर था, जिसे देखकर बड़े-बड़े साधु, संत, मुल्ला और पंडित भी ठिठक जाते थे। वह नंगे घूमता, हँसता, गाता और मोहब्बत की बातें करता। मगर उसकी यह आज़ादी बादशाहत को रास नहीं आई। मुगल सल्तनत में औरंगजेब (Aurangzeb) का शासन था, जिसकी तलवार से उसके अपने ही भाई-बंधु बच नहीं पाए थे, वहां यह फकीर उसके लिए नासूर बन गया था।
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सरमद (Sarmad Kashani) का जन्म ईरान के एक यहूदी परिवार में हुआ था। बचपन से ही उसकी बुद्धि तीक्ष्ण थी और जब उसने धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया, तो उसकी सोच सीमाओं से परे चली गई। उसने धर्म की परिधियों को लांघते हुए प्रेम को ही सच्चा ईश्वर मान लिया। व्यापारी पिता की राह न पकड़कर वह हिंदुस्तान आ गया।
सिंध की भूमि पर उसकी भेंट अभयचंद से हुई और फिर दोनों ने दुनिया को पीछे छोड़ दिया। इस मुलाकात ने सरमद की ज़िंदगी को नया मोड़ दिया। वे दोनों साथी बन गए, इस हद तक कि दुनियावी बंधनों से मुक्त होकर प्रेम को ईश्वर मान बैठे।
दिल्ली में सरमद की शख्सियत का जादू छाने लगा। उसकी रूहानी बातें, उसकी बेखौफ हंसी, उसकी नग्नता – यह सब राजमहल तक गूंजने लगा। दारा शिकोह, जो औरंगजेब (Aurangzeb and Darashikoh) का बड़ा भाई और शाहजहां का चहेता बेटा था, उसने सरमद से दोस्ती कर ली।
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दोनों एक-दूसरे को समझते थे, जैसे दो रूहें बरसों से एक-दूसरे को खोज रही थीं। दारा शिकोह धर्मों के बंधनों से परे जाकर हिंदू, सूफी और बौद्ध दर्शन को आत्मसात कर रहा था, और सरमद तो कब का इन सीमाओं को तोड़ चुका था।
लेकिन औरंगजेब (Aurangzeb) के लिए यह मेल-मिलाप खतरे की घंटी थी। सत्ता के लिए उसने अपने पिता शाहजहां को कैद कर दिया, दारा को मरवा दिया, और अब उसका अगला निशाना था सरमद। मगर फकीर को मारना आसान नहीं था। उसे गद्दार ठहराने के लिए कारण चाहिए था, कोई ऐसा आरोप जिससे जनता भी उसका साथ छोड़ दे। फिर साजिश रची गई।
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सरमद को राजदरबार में बुलाया गया। काजी ने हुक्म दिया कि कलमा पढ़ो। सरमद ने कहा, ‘ला इल्लाह’ – यानी ईश्वर नहीं है। दरबार में सनसनी फैल गई। कलमा अधूरा क्यों? जब पूछा गया तो मुस्कुराकर कहा, ‘मैं सिर्फ इतना जानता हूं। अभी आगे की राह बाकी है।’ यही बयान औरंगजेब को चाहिए था। सरमद को इस्लाम विरोधी ठहराया गया और उसे मौत की सजा सुनाई गई।
चांदनी चौक की गलियों में जब सरमद को फांसी के लिए ले जाया गया, तो लोगों की आंखों में आंसू थे, मगर फकीर के होंठों पर मुस्कान थी। तलवार चली, सिर धड़ से जुदा हो गया।
लेकिन यह क्या! कहते हैं, कटे हुए सिर ने अपनी आँखें खोलीं, हाथों ने उसे थाम लिया और धड़ जामा मस्जिद की सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगा। दिल्ली कांप गई, आसमान गरज उठा। तभी भीड़ में से किसी फकीर ने आवाज दी, ‘इतना गुस्सा ठीक नहीं, बाबा।’ और वह सिर जमीन पर लुढ़क गया।
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आज भी जामा मस्जिद के पास एक दरगाह है, जहां सरमद की मजार लाल रंग की है और उनके उस्ताद शाह हरे भरे की मजार हरे रंग की। वक्त बीत गया, बादशाहतें बदल गईं, मगर सरमद का नग्न सत्य आज भी उतना ही जीवित है। न वह झुका, न उसने समझौता किया। वह अपने प्रेम, अपनी सच्चाई और अपनी बेबाक हंसी में अमर हो गया।