

Indira and emergency
राज नारायण ने 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी पर भ्रष्ट आचरण का आरोप लगाया। उनका आरोप था कि इंदिरा ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया। राज नारायण की याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा को दोषी ठहरा दिया। जब इंदिरा को लगा कि सत्ता उनके हाथ से निकल रही है, तो उन्होंने देश पर इमरजेंसी लाद दी।
25 जून 1975, यही वह काली तारीख है जब भारतीय लोकतंत्र को पिंजरे में कैद कर दिया गया। देश आपातकाल (Emergency) में पहुंच गया। जनता के सभी अधिकार छीन लिए गए। विपक्षी नेताओं को जेल में भर दिया गया। अखबारों पर निगरानी बढ़ गई।
https://www.blogger.com/u/1/blog/post/edit/6681253718063567300/8023328642512805630
यह भी पढ़ें : 99 के फेर में फंस गई कांग्रेस!
जिसने भी इमरजेंसी के खिलाफ आवाज उठाई, उसे सलाखों के पीछे डाल दिया गया। सारी ताकत इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के हाथों में आ गई थी, लेकिन क्या यह सच था? क्या वाकई सारी ताकत इंदिरा के ही हाथों में थी?
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इमरजेंसी के पीछे संजय गांधी (Sanjay Gandhi) का दिमाग था और इमरजेंसी के दौरान भी सबसे ज्यादा ताकत उन्हीं के पास थी। बल्कि सही कहा जाए तो सरकार को वही नियंत्रित कर रहे थे और इसी वजह से जनवरी 1977 में इंदिरा ने एक दिन अचानक इमरजेंसी खत्म कर चुनाव कराने का ऐलान कर दिया था।
जब सब नियंत्रण में था तो इमरजेंसी खत्म क्यों? (Indira and emergency)
इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया, क्योंकि चीजें उनके हाथ से निकल रही थीं। हालांकि जब उन्होंने इमरजेंसी खत्म करने का फैसला किया, तब सब उनके हाथ में था। राजनीतिक फ्रंट पर देखें तो दो साल की कड़ाई ने विपक्ष को तोड़कर रख दिया था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और दूसरे विपक्षी दलों के हजारों कार्यकर्ता-नेता जेलों में बंद थे। बाहर कोई ऐसा नहीं था, जो सरकार के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व कर सके। कई धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी नेताओं ने भी आपातकाल में कुछ ढील के बदले इंदिरा का विरोध न करने की बात कही थी।
आर्थिक मोर्चे पर भी सब सरकार के पक्ष में जा रहा था। तब देश कृषि पर ज्यादा निर्भर था और कृषि उत्पादन बढ़ रहा था। विदेशी मुद्रा भंडार दोगुना हो गया था। महंगाई काबू में थी और ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल खत्म कर काम शुरू कर दिया था। विभिन्न रिपोर्ट्स बताती हैं कि संजय गांधी के कारोबारी नजरिये से व्यापार जगत भी खुश था।
यह भी पढ़ें : हिमालय पर उनका सामना किससे हुआ था?
इसके बावजूद इंदिरा ने 18 जनवरी 1977 को लोकसभा भंग कर चुनाव की घोषणा कर दी। उनके इस कदम से सभी हैरान रह गए। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं तक को नहीं पता था कि हुआ क्या है।
गलत रिपोर्ट पर भरोसा किया
इमरजेंसी (Indira and emergency) खत्म करने को लेकर कहा जाता है कि चीजों के नियंत्रण में होने की वजह से ही इंदिरा ने यह फैसला किया। उन्हें लगा कि सब काबू में है तो चुनाव करा लेने चाहिए, क्योंकि धीरे-धीरे विदेश में उनकी छवि खराब होने लगी थी।
विदेशी मीडिया में इंदिरा के खिलाफ लगातार आर्टिकल छप रहे थे। तब आजादी की याद बहुत पुरानी नहीं हुई थी। सभी को पता है कि इंदिरा ने अपने पिता जवाहरलाल नेहरू (Jawahar Lal Nehru) और महात्मा गांधी के साथ काम किया था। अब वही लोकतंत्र को खत्म किए बैठी थीं।
यह भी पढ़ें : मुगलों की नाक काटने वाली रानी कर्णावती
एक वजह इंटेलिजेंस की रिपोर्ट भी बताई जाती है। इंटेल रिपोर्ट थी कि चुनाव हुए तो कांग्रेस पार्टी (Congress Party) बहुमत का आंकड़ा बहुत आराम से छू लेगी। हालांकि इंदिरा जैसी माहिर राजनेता को यह अंदाजा जरूर रहा होगा कि रिपोर्ट में जीत जितनी आसान बताई जा रही है, वैसा होगा नहीं। यह कैसे हो सकता है कि इतनी बड़ी पार्टी को जनता के गुस्से का अंदाजा न हो?
तो क्या संजय गांधी थे सबसे बड़ा कारण?
शायह हां। संजय गांधी का पार्टी पर पूरी तरह से नियंत्रण हो गया था। यूथ कांग्रेस में तो उनकी ही चलती थी और वह मानते थे कि युवा ही पार्टी और देश का भविष्य हैं। विभिन्न खबरें बताती हैं कि संजय गांधी ने अपने भरोसेमंद लोगों की एक टीम बना ली थी, जो सीधे उन्हें रिपोर्ट करते थे।
दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों और यहां तक कि कई दूसरे देशों के नेताओं तक से संजय सीधे संपर्क करने लगे थे। फिर, उनका मानना था कि देश में अमेरिका की तरह राष्ट्रपति व्यवस्था होनी चाहिए। इसके लिए संविधान में बदलाव की जरूरत थी और संजय की टीम ने अपने स्तर पर प्रयास भी शुरू कर दिया था। यह कदम बहुत बड़ा था।
यह भी पढ़ें : जिन्ना से इतना चिढ़ता क्यों है पाकिस्तान?
संजय गांधी के नसबंदी अभियान ने सरकार की बहुत किरकिरी कराई। बताया जाता है कि तमाम अविवाहित युवाओं की भी नसबंदी कर दी गई थी। नेताओं-अफसरों का केवल एक ही मकसद रह गया था, संजय गांधी (Sanjay Gandhi) को खुश करना।
एक और घटना है, जिसने इंदिरा गांधी को चिंता में डाल दिया। जुलाई 1976 में संजय गांधी ने एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में सोवियत संघ के नेताओं की खूब आलोचना की। तब सोवियत यूनियन ही भारत का सबसे करीबी मित्र था। इस इंटरव्यू के बाद इंदिरा को डैमेज कंट्रोल करना पड़ा था।
हालात को समझने में चूक गईं इंदिरा!
इंदिरा गांधी (Indira and emergency) के हाथ से चीजें रेत की तरह फिसल रही थीं। सरकार और संगठन पर फिर से नियंत्रण हासिल करने के लिए चुनाव जरूरी हो गए थे। इंदिरा को लगा कि मार्च 1977 सही वक्त है। हालांकि वह हालात को भांप नहीं पाईं।
चुनाव का ऐलान होते ही विपक्षी नेता जितनी तेजी से एकजुट हुए, जिस तरह जनता दल उभरा और उसे जनता का जैसा समर्थन मिला, उसकी उम्मीद इंदिरा को नहीं थी। जिस हार से बचने के लिए उन्होंने इमरजेंसी लगाई थी, आखिर वही हार उनके गले आ पड़ी थी।