

‘आप स्वतंत्र हैं, पाकिस्तान में आप अपने मंदिरों में जाने के लिए स्वतंत्र हैं, आप अपनी मस्जिदों या अन्य पूजास्थलों में जाने के लिए स्वतंत्र हैं। जाति-धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। सबको नागरिकता के समान अधिकार प्राप्त होंगे।’ जिन्ना बोलते जा रहे थे और सुनने वालों का जायका बिगड़ता जा रहा था।
उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उनके कायदेआजम यह कौन-सी भाषा बोल रहे हैं। अगर पाकिस्तान (Pakistan News) में दूसरे धर्मों को भी जगह देनी है और सभी को एक नजर से देखना है, तो फिर पाकिस्तान की जरूरत ही क्यों? जिन्ना अपनी धुन में मगन थे, उत्साह से लबरेज। उन्हें यकीन था कि वह जो कुछ भी कह रहे हैं, उस पर सभी दिलोजान से अमल करेंगे।
11 अगस्त 1947 की तारीख थी, जब कराची में पाकिस्तान की संविधान सभा की प्रथम बैठक का उद्घाटन हुआ। जिन्ना (Muhammad Ali Jinnah) ने इसमें जो भाषण दिया, वह आउटलाइन थी उस पाकिस्तान की, जिसे वह देखना चाहते थे। जिन्ना ने बंटवारे को यह कहकर सही ठहराने का प्रयास किया कि संयुक्त हिंदुस्तान का विचार कारगर नहीं हो सकता था। बंटवारा ही एकमात्र विकल्प था। हालांकि उन्होंने इस सवाल का जवाब भविष्य पर छोड़ दिया कि बंटवारा करना सही है या गलत।
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इसके बाद वह हिंदू-मुस्लिम एकता की ओर बढ़े। जिन्ना ने कहा, ‘हिंदू जातियों की बेड़ियों में जकड़े हैं। इसी तरह से मुस्लिम समाज भी कई फिरकों में बंटा है। पाकिस्तान को इससे उबरना होगा। जैसे ब्रिटेन का हर नागरिक बस ब्रिटिश है, वैसा ही कुछ पाकिस्तानियों को होना होगा।’
जिन्ना के इस भाषण ने पाकिस्तान के कठमुल्लाओं को परेशानी में डाल दिया। मुस्लिम लीग के नेता तक हैरान थे। जिस जिन्ना ने कहा था कि मुस्लिम बहुल सूबों में रहने वाले 7 करोड़ मुसलमानों को आजाद कराने के लिए वह जरूरत पड़ने पर आखिरी कुर्बानी देने को भी तैयार हैं, वह अचानक बदल कैसे गए। कठमुल्लाओं को चिंता सताने लगी कि अगर यह भाषण पाकिस्तानियों तक पहुंच जाएगा तो मुल्क की सोच ही बदल जाएगी।
लियाकत ने चली जिन्ना के खिलाफ चाल
ऐसे में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने एक चाल चली। उन्होंने तुरंत ही पाकिस्तान के राष्ट्रीय ध्वज के प्रारूप को स्वीकार करने का प्रस्ताव रख दिया। लियाकत की मंशा थी कि झंडे वाली खबर अब ज्यादा बड़ी हो जाएगी और जिन्ना के भाषण को अखबारों में प्राथमिकता नहीं मिलेगी।
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उस समय ‘डॉन’ (Dawn) अखबार के संपादक अल्ताफ हुसैन थे। डॉन इस समय पाकिस्तान का सबसे प्रमुख अंग्रेजी अखबार है। अल्ताफ हुसैन ने बाद में उस घटना के बारे में बताया था, ‘उलेमा और प्रशासन का बड़ा वर्ग इस्लामिक राज्य चाहता था। इसलिए जिन्ना के भाषण के इस अंश को वे सेंसर कराना चाहते थे, लेकिन जैसे ही मैंने इसकी जानकारी जिन्ना को देने की बात कही, कट्टरपंथी पीछे हट गए। बिना सेंसर किए पूरा भाषण छप गया।’
भाषण तो छप गया, लेकिन यहां से जिन्ना अकेले पड़ने लगे। कठमुल्लाओं को समझ आ गया कि जिन्ना के हाथ में पूरी बागडोर रहने दी, तो उनके लिए अपनी दुकान चलाना मुश्किल हो जाएगा। वैसे भी जिन्ना का मिजाज कठमुल्लाओं के हिसाब से नहीं था।
जिन्ना के बारे में कहा गया है कि वह कभी नमाज नहीं पढ़ते थे। उन्हें उर्दू-फारसी नहीं आती थी। वह धड़ल्ले से अंग्रेजी बोल और लिख लेते थे। गुजराती अच्छी बोलते थे और शराब के शौकीन थे। उन्होंने कभी इस्लामिक परंपरा के अनुसार कपड़े नहीं पहने। कुल मिलाकर, जिन्ना ऐसे नहीं थे जो कठमुल्लों के खांचे में फिट बैठ जाते। ऐसे में जब तक पाकिस्तान वजूद में नहीं आया था, तब तक तो उनकी जरूरत थी, लेकिन बाद में वह कठमुल्लों को अखरने लगे। यहां तक कि उनसे जुड़ी कई बातें अब पाकिस्तान में पढ़ाई तक नहीं जातीं।
बीमारी ने जिन्ना को और कमजोर कर दिया (Jinnah’s disease)
इसके बाद भी जिन्ना को हटाना इतना आसान नहीं था। उन्हीं के नाम पर तो पाकिस्तान बना था। दूसरे कठमुल्लाओं में न इतना दम था और न हुनर कि वे पाकिस्तान के लिए बात कर पाते। हालांकि यहां किस्मत ने जिन्ना का साथ नहीं दिया। उन्हें टीबी थी। इस रोग को वह कई बरसों से छिपाते चले आ रहे थे। उन्हें डर था कि अगर कांग्रेस और लॉर्ड माउंटबेटेन को उनके रोग के बारे में पता चल गया तो पाकिस्तान कभी नहीं बन पाएगा। यह एक दूसरी कहानी है, जिसके बारे में आपके साथ फिर कभी बात की जाएगी।
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तो, जिन्ना के रोग ने जोर मारना शुरू कर दिया। अब उसके लक्षण साफ-साफ दिखने लगे। काम का इतना तनाव था कि उन्हें आराम भी नहीं मिल पा रहा था। ऐसे में बीमारी और ज्यादा घातक होती जा रही थी। किसी ने उन्हें सलाह दी कि कराची से दूर जियारत चले जाना चाहिए। वहां प्राकृतिक वातावरण में सेहत को फायदा होगा।
जुलाई के दूसरे हफ्ते में जिन्ना और उनकी बहन फातिमा जियारत पहुंच गए थे। हालांकि यहां उनकी तबीयत और बिगड़ गई और आखिरकार फातिमा को लाहौर के मशहूर फिजिशन डॉक्टर कर्नल इलाही बख्श को बुलाना पड़ा। डॉक्टर इलाही ने पहली ही जांच में भांप लिया था कि मामला गंभीर है। उनकी सलाह पर करीबी बड़े शहर क्वेटा से मेडिकल टीम बुलाई गई। अब यह जानकारी सभी को थी कि जिन्ना टीबी के रोग से जूझ रहे हैं।
‘यह देखने आया है कि कितने दिन जिंदा रहूंगा’
जिन्ना की सेहत गिरती जा रही है और सियासी मामले उलझते जा रहे थे। पाकिस्तान की आर्थिक दशा गंभीर (Pakistan economic condition) थी, शरणार्थियों की समस्या विकराल रूप ले चुकी थी और जिन्ना की नजर में पीएम लियाकत किसी लायक नहीं थे।
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ऐसे में 30 जुलाई 1948 की रात लियाकत जब जिन्ना से मिलने गए, तो दोनों के बीच कड़वाहट और बढ़ गई। लियाकत के कमरे से निकलने के बाद जिन्ना ने फातिमा से कहा, ‘यह देखने आया है कि मेरी बीमारी कितनी गंभीर है और मैं अब कितने दिन जिंदा रहूंगा।’
फातिमा ने बाद में बताया था कि जिन्ना की आंखें नम थीं। वह अपने भाई को छोड़कर नहीं जाना चाहती थीं, लेकिन जिन्ना ने कहा कि कुछ भी हो, लियाकत मेहमान हैं तो फातिमा को नीचे उन लोगों के पास जाना चाहिए। ऊपर जिन्ना बीमारी में दर्द सहते हुए लेटे थे और नीचे लियाकत खाना खाते हुए चुटकुले सुना रहे थे।
जियारत में एक महीने रहने के बाद जिन्ना को अगस्त में क्वेटा लाया गया। वहां उनकी तबीयत में कुछ सुधार दिखा, लेकिन यह बस दिखावा था। अगस्त आखिर आते-आते जिन्ना में जीने की इच्छा पूरी तरह खत्म हो चुकी थी। उन्हें निराशा ने घेर लिया था। वह कहने के लिए गवर्नर जनरल थे, लेकिन लियाकत और उनके मंत्रियों ने दूरी बना ली थी उनसे। इसी कसक में उनकी सेहत घुलती चली गई। 11 सितंबर 1948 को उन्हें वापस कराची ले जाया जा रहा था, लेकिन वही उनका आखिरी दिन साबित हुआ।