

रानी कर्णावती की कहानी जुड़ी हुई है गढ़वाल से। गढ़वाल साम्राज्य (Garhwal Kingdom) की स्थापना 823 ईस्वी में कनकपाल ने की थी। हालांकि इसे सही मायनों में विस्तार मिला राजा अजयपाल के शासन में। अजयपाल ने अपनी सीमाओं का विस्तार करते हुए 52 गढ़ों पर विजय हासिल की। माना जाता है कि गढ़वाल को नाम भी यहीं से मिला।
तब साम्राज्य की राजधानी देवलगढ़ थी, जिसे बाद में श्रीनगर (Srinagar) ट्रांसफर कर दिया गया। श्रीनगर नाम से चौंकिएगा नहीं, उत्तराखंड में भी एक श्रीनगर है और यहीं पर गढ़वाल की राजधानी हुआ करती थी।
सन 1622 में राजा श्याम शाह का बेटा महिपत (Mahipat Shah) गद्दी पर बैठा। श्याम शाह की अलकनंदा नदी में डूबकर मौत हो गई थी। महिपत को अचानक ही सत्ता मिली, लेकिन उसके सामने कई चुनौतियां थीं। आसपास के राजा आक्रामक रुख दिखा रहे थे, जबकि देश में मुगलों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था।
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महिपत ने इन चुनौतियों का बखूबी सामना किया। वह निडर और बहादुर था। उसने तिब्बत तक तीन बार चढ़ाई की और मुगलों के सामने कभी हार नहीं मानी। उसके दौर में गढ़वाल साम्राज्य का और विस्तार हुआ। लेकिन यह सब लंबा नहीं चल पाया। महिपत केवल 9 साल ही गद्दी पर रह सका। सन 1631 में एक युद्ध के दौरान ही रणभूमि में उसकी मौत हो गई।
रानी कर्णावती को मिली जिम्मेदारी
गढ़वाल के लिए महिपत का जाना एक सदमा था, लेकिन यहीं से उसे मिली अपनी रानी कर्णावती। उनकी शादी महिपत से हुई थी और दोनों के एक बेटा था, पृथ्वीपत शाह। हालांकि पिता की मौत के समय उसकी उम्र केवल 7 बरस थी। दूसरा कोई वारिस था नहीं और ऐसे में राजकाज संभालने का जिम्मा रानी कर्णावती पर आ गया।
रानी कर्णावती (Rani Karnavati) हिमाचल प्रदेश के एक राजपरिवार से ताल्लुक रखती थीं। उन्हें बचपन से ही प्रशासनिक व्यवस्था संभालना सिखाया गया था। साथ में वह युद्ध कौशल में भी निपुण थीं। इसके बाद भी यह बहुत बड़ी बात थी कि कोई महिला राजगद्दी पर बैठे। आम धारणा यही थी कि महिलाएं सत्ता नहीं संभाल सकतीं।
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रानी कर्णावती के गद्दी संभालते ही आसपास के राज्यों में सुगबुगाहट शुरू हो गई। सभी को लगने लगा कि एक महिला के लिए इतने बड़े साम्राज्य को संभालना संभव नहीं होगा। कुमाऊं और गढ़वाल के बीच की दुश्मनी जग जाहिर थी। कुमाऊं ने इसे बदला लेने का अच्छा मौका समझा।
तब कुमाऊं (Kumaon Kingdom) के राजा थे बाजबहादुर चंद। उनके मुगलों के साथ अच्छे संबंध थे। उन्होंने एक मुगल अधिकारी नजाबत खान को गढ़वाल पर आक्रमण के लिए उकसाया। नजाबत की नियुक्ति उस समय हिमाचल के कांगड़ा में थी। बाजबहादुर ने वादा किया कि वह युद्ध में मुगलों का साथ देंगे।
शाहजहां (Shah Jahan) ने दिया आक्रमण का आदेश
नजाबत खान ने इस लेकर तब के मुगल शहंशाह शाहजहां से बात की। शाहजहां की नजर कब से गढ़वाल पर थी। उसे भी बात जंच गई। सन 1635 में नजाबत खान 30 हजार से ज्यादा सैनिक लेकर गढ़वाल की ओर बढ़ा। उसने देहरादून (Dehradun) के पास रायवाला नाम की जगह पर अपना डेरा जमाया।
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रायवाला से ही नजाबत ने रानी के पास शाहजहां का संदेश भेजा। इसमें 10 लाख रुपये मांगे गए थे और धमकी दी गई थी कि अगर रुपये न दिए तो आक्रमण कर दिया जाएगा। इसे आप रंगदारी कह सकते हैं, जहां एक शहंशाह ही अपने से छोटे शासक को धमका रहा था।
रानी ने अपने सलाहकारों से मशवरा किया। मुगलों की सेना विशाल थी और गढ़वाल को तैयारी के लिए समय चाहिए था। ऐसे में रानी ने एक लाख रुपये नजाबत के पास भिजवा दिए और कहा कि बाकी रकम भी जल्द मिल जाएगी।
रुपये न मिले तो गुस्सा हो गए मुगल (Mughals)
एक लाख रुपये भिजवाने के बाद रानी अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार करने लगीं। उधर, जब समय बीतने लगा तो नजाबत ने गुस्सा होकर चढ़ाई का आदेश दे दिया। वह फौज लेकर श्रीनगर की ओर बढ़ने लगा।
इटली के यात्री निकोलाओ मनूची (Niccolao Manucci) ने 17वीं सदी में भारत की यात्रा की थी। उसने रानी कर्णावती और मुगलों के बीच हुए युद्ध के बारे में लिखा है। मुगल सेना जब आगे बढ़ी, तो रानी के सैनिक पहले से तैयार थे। पहाड़ों पर घात लगाकर बैठी रानी कर्णावती की सेना ने मुगलों को घेर लिया और दोतरफा आक्रमण करने लगे।
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दुर्गम पहाड़ी रास्ते पर मुगल फंस चुके थे। उनके एक तरफ गहरी खाईं थी और दूसरी ओर पहाड़ से आक्रमण करते रानी के वीर सैनिक। वे न आगे बढ़ सकते थे और न पीछे लौट सकते थे।
नजाबत खान अजब मुश्किल में फंस गया था। आखिरकार उसने रानी कर्णावती से रहम की गुहार लगाई। पहले तो रानी ने मना कर दिया, लेकिन मुगलों की हालत दिनों-दिन बिगड़ती जा रही थी। उनके पास खाने-पीने का सामान कम हो गया था।
रानी ने रखी ऐसी शर्त कि हिल गए मुगल
नजाबत ने एक बार फिर रानी से गुहार की। उसने कहा कि वह बस पीछे लौटने का रास्ता दिला दें। रानी ने इस बार इजाजत दे दी, लेकिन एक शर्त के साथ।
रानी कर्णावती चाहती थीं कि मुगलों को ऐसा सबक मिले, जिससे वे फिर कभी पहाड़ों की ओर आंख उठाकर देखने की हिम्मत न जुटा सकें। उन्होंने मुगल सेनापति के पास संदेश भिजवाया कि सभी की जान बख्श दी जाएगी, लेकिन बदले में उन्हें अपनी नाक कटवानी पड़ेगी।
जान या नाक… मुगलों ने जान चुकी। सभी ने अपनी नाक काटी यानी अपनी इज्जत को रानी के कदमों में रखा और युद्ध भूमि से जान बचाकर भागे। नजाबत इससे इतना शर्मिंदा हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली। वहीं, शाहजहां को भी सबक मिल चुका था। उसने तय किया कि वह कभी गढ़वाल के बारे में सोचेगा भी नहीं।
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