

तब धरती पर उनके आगे किसी की कोई बिसात नहीं थी। वही राजा थे और वही प्रजा। सारा फैसला ताकत से होता था। लेकिन कोई साम्राज्य कितना भी ताकतवर हो, एक न एक दिन उसका पतन होता ही है।
उनके साम्राज्य पर भी काले बादल मंडराने लगे। सूरज छिप गया। आसमान में आग का एक बड़ा सा गोला उभरा, जो तेजी से धरती की तरफ बढ़ रहा था। लग रहा था कि कोई शैतानी शक्ति पृथ्वी को निगलने के लिए दौड़ी चली आ रही है।
उस शक्ति के धरती पर आने से पहले धूल, धुएं और पत्थरों की बारिश हुई। जानवर पिघल कर गिरने लगे। हरे-भरे पेड़ तक जल उठे। साम्राज्य की जमीन हिलने लगी थी। फिर वह शैतान आ पहुंचा।
एक तेज धमाका हुआ, जिसके आगे सारी आवाज गुम हो गई। आंखों को अंधा कर देने वाली रोशनी हुई और सब कुछ उसमें समाता चला गया। आग का ऐसा सैलाब उठा, जिसने रास्ते में आने वाली हर चीज को निगल लिया। धरती जोर से हिली और उसके साथ ही वह ताकतवर साम्राज्य भी उखड़ गया।
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यह घटना घटी थी लगभग 6.60 करोड़ साल पहले। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, लगभग 12 किलोमीटर बड़ा एक उल्कापिंड धरती से टकराया था। इसके चलते डायनासोरों का अंत हो गया। उस टक्कर ने धरती के तीन तिहाई पेड़-पौधों और जीवों को भी नष्ट कर दिया। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह टक्कर आज के मैक्सिको के Yucatán Peninsula में हुई थी।
कैसे पता चला डायनासोरों की विलुप्ति का राज
दुनियाभर में डायनासोरों के जीवाश्म मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि एक समय हर जगह ये पाए जाते थे। इनके खात्मे का रहस्य एक खास परत में दर्ज है, जिसे K–Pg कहते हैं। यह परत पूरी दुनिया में फैली हुई है। इसकी मोटाई सिर्फ 2-3 सेंटीमीटर होती है। इस परत के नीचे डायनासोर के बहुत सारे फॉसिल मिलते हैं।
1970 के दशक में अमेरिकी भूवैज्ञानिक वाल्टर अल्वारेज इटली के पहाड़ों पर चट्टानों की परतों का अध्ययन कर रहे थे। इनमें K-Pg भी शामिल थी। वह जानना चाहते थे कि इस परत को बनने में कितना समय लगा।
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पहले उन्होंने बेरीलियम-10 नामक आइसोटोप के टूटने को मापकर समय का अंदाजा लगाने का प्रयास किया। हालांकि यह तरीका काम नहीं आया, क्योंकि बेरीलियम-10 पहले ही खत्म हो चुका था। इसके बाद उन्होंने इरीडियम नाम के तत्व को मापने का फैसला किया।
इरीडियम पृथ्वी पर बहुत कम मात्रा में पाया जाता है। यह आमतौर पर पृथ्वी के भीतर गहराई में होता है। सतह पर मिलने वाला इरीडियम अंतरिक्ष से आई धूल के कारण आता है। K-Pg परत में इरीडियम की मात्रा 30 गुना ज्यादा थी और हर जगह यह तत्व इसी परत में पाया गया। ज्यादा मात्रा का मतलब कि इरीडियम अचानक धरती पर आया था, किसी उल्कापिंड के टकराने से।
वाल्टर अल्वारेज ने जब अपनी थ्योरी पेश की, उस समय Yucatán में समुद्र के नीचे 180 किलोमीटर चौड़ा गड्ढा खोजा गया। 1990 तक यह पक्का नहीं था कि इसी जगह उल्कापिंड टकराया था। हालांकि अब यह बात कन्फर्म है।

आग का सैलाब, सुनामी और फिर मौसम बदला
उल्कापिंड के आसपास विस्फोट और झटके की वजह से जीवन तुरंत खत्म हो गया। यह असर केवल उसी जगह सीमित नहीं रहा। वायुमंडल में धूल और धुआं पसर गया। धरती का मौसम बदलने लगा, तापमान गिर गया और प्रजातियां धीरे-धीरे मरने लगीं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि टकराव के कारण विशाल सुनामी आई थी। लंबे समय तक सूरज की किरणें धरती पर नहीं पहुंच सकीं। कुल मिलाकर सारी चीजें जीवन के विरुद्ध हो चली थीं।
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वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि उल्कापिंड के आकार से ज्यादा महत्वपूर्ण उसके टकराने की जगह है। इसका असर पूरे ग्रह पर हुआ।
क्या फिर ऐसा हो सकता है?
हर साल लाखों Meteoroid धरती के वायुमंडल में प्रवेश करते हैं। हालांकि जमीन पर पहुंचने से पहले ही वायुमंडल में ये जलकर नष्ट हो जाते हैं। कभी-कभार कुछ छोटे टुकड़े नीचे भी आ गिरते हैं, लेकिन इनसे नुकसान नहीं होता।
फिर भी स्पेस से लगातार खतरा बना ही रहता है। यही वजह है कि दुनियाभर की स्पेस एजेंसियां अंतरिक्ष पर निगाह बनाए रखती हैं। अगर कोई ऐसी सिचुएशन आती है, जिसमें बड़ा उल्कापिंड धरती की ओर बढ़े, तो हमें ऐसे कदम उठाने का मौका मिल सकता है, जिससे नुकसान को कम किया जा सके।
यह फिर भी याद रखना चाहिए कि कोई भी सत्ता हमेशा कायम नहीं रहती।