

बनारस में लमही के दरवाजे पर पहुंच कर ही लगने लगता है कि यह गांव कुछ खास है। स्वागत द्वार से आगे बढ़ने पर सफेद रंग का पुराना लेकिन चमचमाता दोमंजिला मकान दूर से ही नजर आने लगता है। यही है मुंशी प्रेमचंद का घर। यहीं सन 1880 में उनका जन्म हुआ। एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में वह पैदा हुए। यहीं पर दुनिया ने उन्हें धनपत राय श्रीवास्तव से प्रेमचंद बनते देखा। यहीं बैठकर उन्होंने कालजयी उपन्यासों और कहानियों की रचना की।
इसी गांव से निकली रचनाओं ने पूरी दुनिया में साहित्य प्रेमियों के बीच जगह बनाई और सिनेमा के पर्दे को भी जगमग किया। प्रेमचंद की रचनाओं पर ‘हीरा मोती’, ‘सेवा सदन’, ‘गोदान’, ‘सद्गगति’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ जैसी फिल्में बनीं। इनमें से कई को क्लासिकल का दर्जा हासिल है। ‘शतरंज के खिलाड़ी’ को नेशनल अवॉर्ड मिले थे।
लेकिन क्या आपको पता है कि प्रेमचंद ने खुद भी एक फिल्म के लिए स्क्रिप्ट लिखी थी। इसमें उन्होंने एक छोटा-सा किरदार भी निभाया था। फिल्म बनी भी, कुछ जगह रिलीज भी हुई, लेकिन फिर इसे हटा लिया गया। ब्रिटिश राज ने मजदूर विद्रोह के डर से फिल्म को मंजूरी नहीं दी।
यह भी पढ़ें : अब सीक्वल के भरोसे पार होगी बॉलीवुड की नैया
1930 के दशक में हिंदी सिनेमा ने रफ्तार पकड़नी शुरू कर दी थी। आजादी का आंदोलन जोर पकड़ रहा था और साथ में सिनेमा भी तेजी से बढ़ रहा था। उधर साहित्य में प्रेमचंद शिखर पर पहुंच चुके थे। उनकी लेखनी के कद्रदान हर जगह थे, शोहरत फैल चुकी थी।
इस वक्त तक फिल्मी दुनिया ने लोगों को आकर्षित करना शुरू कर दिया था। कई साहित्यकार बॉलीवुड का रुख करने लगे थे। चूंकि फिल्में ज्यादा बन रही थीं, तो नई-नई कहानियों की भी जरूरत थी। सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि फिल्मों के लिए लिखने पर पैसे ज्यादा मिलते थे। पत्र-पत्रिकाओं से इतनी कमाई नहीं थी।
ऐसे समय में ही प्रेमचंद बंबई पहुंचे थे। वहां के अजंता सिनेटोन नाम के एक फिल्म स्टूडियो में 4000 रुपये महीने पर उन्हें नौकरी मिल गई। यहीं पर उन्होंने एक फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम शुरू किया। इस फिल्म का नाम था ‘मिल मजदूर’ (Mill Mazdoor), जो 1934 में बनकर तैयार हुई।
मोहन भवानी का स्क्रीनप्ले, बीसी मित्रा की सिनेमैटोग्राफी
फिल्म के डायलॉग भी प्रेमचंद ने लिखे थे। स्क्रीनप्ले मोहन भवानी का था। कलाकारों में मिस बिब्बो, पी. जयराज, एस.बी. नयाम्पैली, मिस ताराबाई, खलील आफताब, कुमारी अमीना, एस.एन. पाराशर, एस.एल.पुरी, मिस अमीना जैसे नाम थे।
यह भी पढ़ें : क्या ‘पुष्पा’ के आगे झुक जाएगा बॉलीवुड?
कहानी बिलकुल सरल थी। एक युवा अपने पिता की टेक्सटाइल मिल का नया मालिक बन जाता है। लेकिन वह मिल मजदूरों पर अत्याचार करने लगता है। उसकी एक बहन भी है, जो मजदूरों के हक में बात करती है। मिल के दूसरे पार्टनर भी श्रमिकों के पक्ष में होते हैं। यहां तक कि मजदूरों के हड़ताल पर जाने पर भी वे उनका समर्थन करते हैं।
क्लाइमेक्स में श्रमिक विरोधी भाई जेल चला जाता है। इसके बाद कमान बहन के पास आती है और वह मजदूरों के साथ मिलकर मिल को आगे बढ़ाती है।
इस फिल्म ने उद्योग जगत में तहलका मचा दिया। तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि मजदूर विद्रोह करेंगे और मिल मालिक की बेटी भी उनका साथ देगी। जिस सीन में बहन और मजदूर साथ खड़े नजर होते हैं, उसने सभी को हिलाकर रख दिया। फिल्म में प्रेमचंद ने मजदूर नेता की भूमिका निभाई थी।
अंग्रेजी शासन को डर लगने लगा
फिल्म को फरवरी 1934 में सेंसर बोर्ड के पास भेजा गया था। इस बीच इसे लाहौर, दिल्ली और लखनऊ में रिलीज भी किया गया। सभी जगह इसने मजदूरों में नया जोश भर दिया। तब श्रमिक वर्ग पर दोतरफा मार पड़ रही थी। एक तरफ मिल मालिक थे और दूसरी ओर अंग्रेजी सत्ता। उन्हें दोनों तरफ से शोषण झेलना पड़ता था।
यह भी पढ़ें : बॉलीवुड को अपने डायलॉग से ही जिंदा कर देगा Badass Ravikumar
थोड़ा उस माहौल को भी समझ लीजिए। आज की तरफ तब भी बंबई आर्थिक राजधानी थी। लेकिन वह समय अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं था। पूरी दुनिया में मंदी चल रही थी और भारत के उद्योग भी उससे बचे नहीं रहे थे। बेरोजगारी और महंगाई चरम पर थी।
ब्रिटिश सरकार को हालात संभालने में मुश्किल हो रही थी। ऐसे में Mill Mazdoor ने परेशानी और बढ़ा दी। मजदूर जागरूक होने लगे। सेंसर बोर्ड में कई उद्योगपति थे। वे भी नहीं चाहते थे कि यह फिल्म पर्दे पर लगी रहे। आखिर में विद्रोह के डर से इस पर बैन लगा दिया गया।
प्रेमचंद के प्रेस में विद्रोह
इस फिल्म के असर को ऐसे समझिए कि खुद प्रेमचंद के प्रिंटिंग प्रेस में काम करने वाले कर्मचारियों ने विद्रोह कर दिया। कर्मचारियों का पिछला काफी वेतन बकाया था। ‘मिल मजदूर’ ने उनमें हिम्मत दी और वे अपना वेतन मांगने लगे।
बॉलीवुड को लेकर दर्शकों की शिकायत रहती है कि इसमें अच्छी कहानियों की कमी है। लेकिन Mill Mazdoor सबूत है कि इसे इसलिए हटना पड़ा, क्योंकि इसमें जनता को जागरूक करने की ताकत थी। इस अनुभव के बाद प्रेमचंद ने भी मायानगरी को अलविदा बोल दिया।
यह भी पढ़ें : फिल्मों में क्या चल पड़ा है प्रीक्वल, स्पिनऑफ, यूनिवर्स?